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कविता

रोजी रोटी तक दिन

रविशंकर पांडेय


सूरज का -
एड़ी से चोटी तक दिन
डूब गया
फिर रोजी रोटी तक दिन।

सुबह शहद जैसी
तो दोपहर कसैली
चिंताएँ संध्या को
कर गयीं विषैली
प्यार भरे चुंबन से
आपसी खरोचों तक
लील गया -
बात बड़ी छोटी तक दिन।

पेट पीठ दोनों की
अपनी मजबूरी
मिलाकर के ढोते हैं
एक अदद दूरी
याचना निराश हुई
दस्तक दे द्वार-द्वार
विनती से चला
खरी खोटी तक दिन।

पिटे हुए मोहरों ने
बिछा दिया जाल
प्यादे को काट गई
घोड़े की चाल
शहरों से चलकर के
कस्बों से गाँवों तक
सिमट गया
शतरंजी गोटी तक दिन।


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